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Saturday, July 30, 2016

9 अगस्त - विश्व आदिवासी दिवस
लौह महिला इरोम शर्मिला 
ने जनअधिकार के लिए फूंका चुनावी बिगुल


राजन कुमार

Iron lady Irom Sharmila

नई दिल्ली। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र या महान लोकतंत्र कैसे अपने लोगों के लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलता है, उन आंदोलनों का भद्दा मजाक उड़ाता है और अंत में निष्क्रिय कर देता है, इसे समझने की जरूरत है। क्यों ऐसे आंदोलनों से देश के सभी छोर के लोग नहीं जुड़ पाते हैं, यह भी समझने की जरूरत है। 

16 साल तक आमरण अनशन करने वाली लौह महिला इरोम शर्मिला के आंदोलन को संभावनाहीन बना देना भी तो इस लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। आखिर तभी तो अपनी जिंदगी के खूबसुरत 16 साल आमरण आंदोलन में गंवा देने के बाद भी परिणाम कुछ खास हासिल न हो सका।
नवंबर 2000 में इम्फाल में असम राइफल्स के जवानों की फायरिंग में 10 लोगों की मौत के बाद से इरोम चानू शर्मिला ने अपना अनशन शुरू किया था। वह बेवजह मारे गए निदोर्षों के लिए पिछले 16 वर्षों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) का विरोध कर रही हैं, लेकिन उनकी लाख कोशिशों के बावजूद आज तक अफस्पा कायम है और भविष्य में भी उसके रद्द होने की कोई संभावना नहीं दिखने पर अब उन्होंने अपना आंदोलन आगामी 9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस  के मौके पर समाप्त करने का ऐलान किया है। 

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इरोम शर्मिला के आंदोलन को संभावनाहीन हो जाना दर्शाता है कि कैसे इस लोकतंत्र के लोग आपस में एक छोर से दूसरे छोर तक घोर संवेदनहीनता से ग्रसित हैं। या बहुत हद तक विरोधी भी, जैसे, झारखण्ड-छत्तीसगढ़-महाराष्ट्र के आदिवासियों को नक्सली, पूर्वोत्तर को आदमखोर या उग्रवादी और कश्मीरियों पर आतंकवादी का आरोप लगाने से भी परहेज नहीं करते।


लंबे अरसे से जिंदगी और मौत से जूझ रही इरोम शर्मिला का यह फैसला लोकतांत्रिक आंदोलनों से उठते भरोसे का सबूत है। इतने सालों में कई सरकारें आई और कई सरकारें गईं, लेकिन किसी ने भी शर्मिला के आंदोलन के प्रति कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई।


'लौह महिला' इरोम चानू शर्मिला ने कहा कि अपने आंदोलन के प्रति आम लोगों की बेरूखी ने उन्हें यह फैसला करने के लिए बाध्य कर दिया। वह सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम (आफस्पा) हटाने की उनकी अपील पर सरकार की तरफ  से कोई ध्यान नहीं देने और आम नागरिकों की बेरूखी से मायूस हुई हैं, जिन्होंने उनके संघर्ष को ज्यादा समर्थन नहीं दिया। 


इतने सालों से सत्ता के असंवेदनशील रवैये ने शर्मिला को सक्रिय राजनीति में आने को मजबूर कर दिया, क्योंकि उनके 16 सालों के लंबे संघर्ष के बावजूद सरकारें जनविरोधी कानून पर पुनर्विचार करने में असमर्थ रहीं।


16 साल के लंबे और ऐतिहासिक अहिंसक आंदोलन करने वाली इरोम शर्मिला मणिपुर में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लडऩे का फैसला किया है। अनशन तोडऩे के बाद शादी भी करने की चर्चा है। 


दो साल पहले इरोम शर्मिला ने दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में कहा था कि अनशन करना उनका शौक नहीं है। किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह वह भी खाना चाहतीं हैं, भूखे रहकर मरना नहीं चाहतीं। सरकार अगर अफस्पा हटा लेती है तो वह तुरंत अपना अनशन खत्म कर देंगी।
लेकिन अफस्पा अभी हटा नहीं है, फिर भी इरोम ने अनशन खत्म कर सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने की बात कही हैं। जो उनके दिल में देशवासियों के प्रति, जनता के अधिकारों के प्रति प्यार और जुनून को दर्शाता है। 16 साल के अनशन से इरोम का आत्मविश्वास और बढ़ा है। वह राजनीति में आकर जनता के अधिकारों के लिए लडऩा चाहती हैं और अपने आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाना चाहती हैं। हालांकि इरोम के इस फैसले से उनके घर वाले खुश नहीं हैं, लेकिन उनका यह फैसला जनता के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा दिखाती है। जबकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भी उन्हें थोड़ी राहत मिली है। 


गौरतलब है कि इसी महीने मणिपुर में एक फर्जी मुठभेड़ के मुकदमे की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) अधिनियम के तहत अशांत घोषित क्षेत्रों में उग्रवाद के खिलाफ कार्रवाई के दौरान सेना अत्याधिक बल प्रयोग नहीं कर सकती है। हालांकि इससे थोड़ा राहत की सांस ली जा सकती है, लेकिन पूर्णतया न्याय अब भी इस मामले पर बाकी है।


ईरोम चानू शर्मिला जल्द एक राष्ट्रीय नेता के रूप में जनअधिकारों की हुंकार के साथ राजनीतिक फलक पर दिखेंगी, जिसे अन्य नेता परहेज करते दिखते हैं। 


इसी शुभकामना के साथ आदिवासी लौह महिला को सलाम।


Rajan Kumar
& Team 
JAYS (Jai Adivasi Yuva Shakti)
Mission - 2018
Right for Adivasi, Fight for Adivasi
Rajan Kumar


Wednesday, October 10, 2012


पत्थर जैसी जिंदगी
Rajan Kumar
दिल्ली में घरेलू कामगार के रुप में कार्यरत लाखों आदिवासी महिलाओं की हालत इतनी बद्त्तर है कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। आदिवासी का जंगल, जमीन सिकुड़ने लगा है, नदियों का जल प्रदूषित हो चुका है, खाने के लाले पड़ चुके है। ऐसी परिस्थिति में 10-12 साल की लड़कियों से लेकर बड़ी उम्र की लड़कियां तक दिल्ली समेत विभिन्न महानगरों में काम की तलाश में मजबूरन पलायन कर रहीं हैं। ना कोई हाई क्वालिफिकेशन है, ना ही कोई टेक्निकल जानकारी, सिर्फ घरेलू काम की जानकारी रहती है, काम भी वहीं मिलता है। लेकिन इतनी शोषण और विवशता के साथ की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अनेको तो10-12 या 15 साल की नाबालिग लड़कियां, जो सिर्फ काम करती हैं, खाती है, पहनने को कपड़ा मिल जाता है, इतना ही पाकर खुश हो जाती है। महीने-दो महीने पर मालिक 500 या 1000 रुपया दे देता है, जिसे वे घर भेज देती हैं। लगभग-लगभग सभी घरेलू कामगारों की यहीं स्थिति है। जगह-जगह प्लेसमेंट एजेंसी खुल चुकी हैं। कोई आदिवासी संस्कृति, आदिवासी महानायकों के नाम पर अपनी प्लेसमेंट एजेंसी का नाम रखकर इन आदिवासी घरेलू कामगारों को लूट रहें हैं तो कुछ प्रसिद्ध चर्च और ईसाई महापुरुष का नाम रखकर अपनी प्लेसमेंट एजेंसी चला रहें हैं।
ये प्लेसमेंट एजेंसी इन नाबालिग-बालिग लड़कियों को किसी भी घर में काम पर लगा देते हैं, महीने की पूरी सैलरी खुद डकारते हैं। हजार-पांच सौ उनके घर भेज देते है। घरेलू कामगारों के घरवाले भी खुश, प्लेसमेंट एजेंसी वाले भी खुश, घरेलू कामगारों को तो खाने पहनने को मिल ही रहा है। आदिवासी संस्कृति, आदिवासी महानायक और प्रसिद्ध चर्च के नाम पर चलने वाले इन प्लेसमेंट एजेंसी वालों पर न तो कोई चर्च कार्रवाई करता है, न तो कोई आदिवासी समाजसेवी, और न ही स्थानीय पुलिस या सरकार। कोई भी इन घरेलू कामगारों की खोज-खबर नहीं लेता और धीरे-धीरे इनकी जिंदगी सरकती हुई ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है जहां इनको आगे जींदगी के लिए किसी के सहारे की जरुरत महसूस होती है। लेकिन करें भी तो क्या, घरवालों क्या फिक्र, पैसा आ ही रहा है। कौन करता है इनकी शादी की फिक्र। 10-12 की लड़कियां नाबालिग से बालिग होती हैं, फिर बालिग से बूढ़ी हो जाती है, और बिना शादी के ही पूरी जिंदगी गुजर जाती है। जब ये घरेलू कामकाजी महिलाएं जीवन की आखिरी पड़ाव पर पहुंचती हैं तो इनकों किसी के सहारे की कमी खलती है, जिसके बारे में वे पहले कभी सोची तक नहीं।
अगर कोई भूल-चूक से किसी गैर आदिवासी से शादी करके जब घर पहुंचती हैं तो उनका समाज उन्हे समाज और घर से बहिष्कृत कर देता है। जबतक वह पैसा भेजती है, बाप-भाई शराब पीने में एक दूसरे से मुकाबला करते है। शराब के नशे में उसकी शादी, उसका जीवन सब कुछ भूल जाते हैं। इन घरेलू कामगार महिलाओं की जिंदगी भी क्या खूब जिंदगी है। जब तक जान थी, तब तक होश नहीं था, जब होश आया तो उम्र ढल चुकी है। कहने के लिए मां, बाप, भाई। किसी ने भी इन बेचारी की फिक्र नहीं की। प्लेसमेंट एजेंसी वालों ने लूटा, भाई-बाप ने इनके पैसे से ऐश किया, अब तो हाथ में कुछ पैसा भी नहीं है। कैसे कटेगी जिंदगी? कौन जाने?
विवशताओं के कारण शहर पहुंची इन महिलाओं की आज हालत इतनी दयनीय है कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। अगर सिर्फ दिल्ली की बात करें तो यहां पर लगभग 15 लाख से भी ज्यादा घरेलू कामगार महिलाएं काम कर रही हैं। इसमें सत्तर प्रतिशत महिलाएं शायद ही घर जाएं, 60 प्रतिशत महिलाएं अविवाहित ही रह जाएंगी, क्यों कि इनकी उम्र इतनी ढल चुकी है कि शायद ही कोई शादी करे इनसे। आखिर इनकी जिंदगी इतनी कठोर कैसे हो गई और इनके इस कठोर जिंदगी का कौन जिम्मेदार है?
-राजन कुमार 

Wednesday, September 12, 2012

शहरी आदिवासी का रमणीय गांव
Rajan Kumar
जंगल-गांव छोड़कर जब आदिवासी शहर पहुंच चुके हैं तो अब अपने जंगल-गांव वापस नहीं जाना चाहते। कुछ योग्य बन कर तो कुछ आरक्षण के सहारे सरकारी नौकरी पाए तो कुछ को प्राइवेट नौकरी रास आ गया, जिसके सहारे आदिवासी शहर का रास्ता नाप लिए। शहर आकर आदिवासी इतने रम-झम गए हैं कि इन्हें अपने विशेष त्यौहारों पर चाह कर भी अपने घर जाने का मन नहीं करता। मुश्किल से घर पहुंच भी गए तो एक-दो दिन में ही लौट आते हैं। शहरी आदिवासियों का अपने गांव से कटने का मुख्य कारण है आदिवासी क्षेत्रों का विकास न होना। जंगल के बीच बसे गांव में जाने के लिए शहरी आदिवासी को कई मीलों पैदल चलना पड़ता है, जबकि शहर में तो 100 मीटर भी जाने के लिए रिक्शा या आॅटो रिक्शा में जाते हैं। 

जंगल के बीच बसा गांव कितना रमणीय लगता है, लेकिन उस रमणीय गांव में सिर्फ जंगल, पहाड़िया, झरने ही मिलते हैं, पीने का स्वच्छ पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। बारिश कम होती है, सिंचाई का कोई साधन नहीं, जिससे खाने के भी लाले पड़े रहते हैं। बड़ी मुश्किल से एक टाइम का खाना मिल पाता है।
इन्हीं मूल सुविधाओं के कारण शहरी आदिवासी को जंगल के बीच बसा अपना रमणीय गांव नहीं भाता, जबकि वहां (जंगल में) पर वर्षों से रहे आदिवासियों को अभावों के बीच जीने की आदत पड़ चुकी है और उनके बच्चे जो शहरी आदिवासी हो चुके हैं मूलभूत अभावों में एक पल भी नहीं रह सकते।
सरकार आदिवासी क्षेत्रों के चहुंमुखी विकास के दावे कर रही है, लेकिन शहरी आदिवासियों का गांव से कटे रहना सरकार के चहुंमुखी विकास के दावों की पोल खोल रही है। यहीं कारण है कि न चाहते हुए भी भारी संख्या में आदिवासी युवक-युवती अपने गांव से पलायन को मजबूर हैं, जबकि शहरी आदिवासियों को अपने गांव से दूर होने का दर्द हमेशा सताता रहता है।
आदिवासियों के लिए अभिशॉप उत्तर प्रदेश
Rajan Kumar उत्तर प्रदेश में आदिवासियों को देखकर मुझे यह लगता है कि उत्तर प्रदेश में उनका होना ही उनके लिए अभिशाप है। उत्तर प्रदेश में आदिवासियों की जो स्थिति है उसे देखकर यहीं लगता है कि आदिवासियों को उत्तर प्रदेश में होना नहीं चाहिए। क्यों कि उत्तर प्रदेश इलाका मैदानी क्षेत्र है, कहीं छिट-फुट जंगल था, जो आदिवासियों का शरणगाह बना था, अब छिटफुट जंगल कट गए, खेत बन गए, इनका
आशियाना ही समाप्त हो गया।
रही बात आदिवासी योजनाओं की तो राज्य सरकार के तरफ से इस तरह की कोई योजना नहीं है, केंद्र सरकार की योजनाएं इन तक पहुंच नहीं पाती। आरक्षण की बात करें तो उत्तर प्रदेश की इतनी बड़ी आबादी में आदिवासी नगण्य के बराबर है, जिससे राज्य सरकार के योजनाओं में आरक्षण भी कभी-कभी मिलता है और यहीं कारण है कि केंद्र सरकार की योजनाओं में मिलने वाले आरक्षण से ये अनभिज्ञ रह जाते हैं।
अगर हम उत्तर प्रदेश में आदिवासी इलाकों की बात करें तो सबसे सोनभद्र जिले का नाम आता है, उसके बाद लखीमपुर खीरी का। जबकि बाकी क्षेत्रों में इक्का-दुक्का कहीं-कहीं आदिवासी हैं। सोनभद्र आदिवासी बहुल इलाका और यह संविधान के पांचवी अनुसूचि अंतर्गत आता है। इस जिले को उत्तर प्रदेश का ऊर्जाचंल भी बोला जाता है। प्रदेश का सबसे अमीर जिला होने के बावजूद यहां भूख और गरीबी से मर रहें हैं। यहां आदिवासियों की आबादी इतनी कम हो चुकी है कि प्रदेश के टॉप पांच आदिवासी आबादी वाले जिले में इसका कहीं नाम ही नहीं है।
सोनभद्र देश का एकमात्र ऐसा जिला है जो पांच राज्यों को एकसाथ जोड़ता है, समझ में नहीं आता इसे सोनभद्र का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य। यह जिला बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश को एक दूसरे से जोड़ता है।
अगर यह जिला झारखण्ड या छत्तीसगढ़ में पड़ता तो उत्तर प्रदेश की अपेक्षा इसकी या यहां रहने वाले आदिवासियों की स्थिति कुछ अच्छी हो सकती थी, लेकिन हमेशा यहां आदिवासियों को उजाड़ा गया। पूरे जिले में कारपोरेट जगत की धूम है। खनिज पदार्थ निकाल कर प्रदेश सरकार अमीर तो हो रही है, लेकिन यहां की जनता भूख और गरीबी से मर रही है। पूरे सोनभद्र में खनन का कार्य चल रहा है, कहीं इक्के-दुक्के आदिवासी अपने जीवन की नैया पार लगाने की कोशिश कर रहें है।
कौन कहता है कि आदिवासियों के जान की कोई कीमत है!
Rajan Kumar कौन कहता है कि आदिवासियों के जान की भी कोई कीमत होती है। अगर आदिवासियों के जान की कीमत होती तो आदिवासियों पर इतना अत्याचार क्यों होता! सरकार आदिवासियों की सुध क्यों नहीं लेती!
रांची में सुरक्षाबलों ने जान बुझकर आदिवासी भीड़ पर ट्रक दौड़ा दी। भगदड़ में कई आदिवासी गिरे जिन्हें सुरक्षाबलों ने गाड़ी रौंदते हुए आगे निकल गए, फिर उसी भीड़ पर ट्रक को वापस दौड़ाया, जिससे दो-तीन आदिवासी घायल हो गए और बोले उरांव नामक एक आदिवासी युवक की मौत हो गई।

पटना के मोकमा थाना अंतर्गत लोगों ने 5 सितंबर को एक आदिवासी युवक को इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई और आरोप लगा दिया कि वह चोर था, जबकि पुलिस ने जांच कर पाया कि उसके पास कोई सामान ही नहीं था और वह शराब पी रखा था, पुलिस ने बताया कि युवक का नाम हरगु उरांव झारखण्ड का निवासी था और पास के ही इंट-भट्ठे पर काम करता था।
छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले अंतर्गत पारा में एक युवक ने एक 12 साल की नाबालिग आदिवासी लड़की को इस लिए जलाकर मार डाला कि वह सही ढंग से काम नहीं कर पाई। अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ के ही सारकेगुडा में नाबालिग आदिवासियों को नक्सली बता कर सुरक्षाबलों द्वारा मौत के घाट उतार देने की घटना को कौन नहीं जानता है।
बिहार के पूर्णिया जिला अंतर्गत रुपसपुर चंदवा में 22 नवंबर 1971 को पूरे गांव के संथाल आदिवासियों के घरों को जला कर, उन्हें गोली मार कर, लाशों को नदी में बहा दिया गया। झारखण्ड के साहेबगंज जिला अंतर्गत बांझी में भी 19 अप्रैल 1985 को 15 आदिवासियों को पुलिस की गोलियों से भून दिया गया।
क्या इन मौतों पर किसी ने उंगली उठाया, क्या इन आदिवासी मौतों पर सरकार या समाज द्वारा कोई विरोध किया गया? जो आदिवासी अपने हक और सुरक्षा के लिए आवाज उठाए, उसे नक्सली बता कर मार देना, आदिवासियों की जंगल, जमीन जबरन छीन कर उन्हें मरने के लिए छोड़ देना, जब चाहो आदिवासी को मार कर या गिरफ्तार कर अपराधी घोषित कर देना जैसे हथकंडे कोई नए नहीं है।
कौन नहीं जानता है कि भारत समेत पूरे दुनिया में आदिवासियों को साजिश के तहत खत्म किया जा रहा है, अब तो सिर्फ भारत और अफ्रीका में ही आदिवासी बचें हैं, जिन्हें किसी न किसी तरह से सरकार या कारपोरेट जगत खत्म करना चाहता है।
Rajan Kumar
कौन कहता है कि आदिवासियों के जान की भी कोई कीमत है!



Saturday, September 1, 2012


इतना तिरस्कार क्यों?



राजन कुमार
असम के एक बहुत बड़े भू-भाग पर चाय बागान है, जिसमें एक करोड़ के आस-पास चाय श्रमिक काम करते हैं। चाय श्रमिकों की कोई खास खोज-खबर नहीं रखता, भले ही इन्हीं चाय श्रमिकों के वजह से आज चाय उद्योग के लिए असम विश्व विख्यात है। असम की बहुत कम खबरे सुर्खियों में रहती हैं, इसका भी शायद यहीं कारण हैं कि यहां बहुत बड़े भू-भाग पर चाय बागान है और मीडिया या कोई भी चाय श्रमिकों को खास तवज्जो नहीं देता। वैसे असम की कोई घटना अगर सुर्खियों में जाती है तो वह लगातार सुर्खियों मे बनी रहती है, लेकिन वो भी शर्त पर! खबर चाय श्रमिकों की नहीं होनी चाहिए। पिछले दिनों असम में बोड़ो और मुस्लिम समुदाय के बीच दंगा-फसाद, उसके पहले गुवाहाटी में नाबालिक लड़की के साथ सामुहिक छेड़छाड़ और उसके पहले असम में बाढ़ की खबर कई दिनों तक सुर्खियों में बनी रहीं। लेकिन वहां के चाय श्रमिकों के शोषण और व्यथा की खबर कभी शायद ही सुर्खियों में आई, जिन्हें चाय जनजाति के नाम से अलंकरण तो कर दिया गया लेकिन अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं दिया गया। दंगा-फसाद, नाबालिग से छेड़छाड़ और बाढ़ से पूर्व एक खबर थी, जिसे मीडिया सुर्खियों में तो नहीं लाना चाहती थी, लेकिन मजबूरी वश कुछ स्थानीय अखबारों को तो छापना ही पड़ा। खबर थी चाय श्रमिकों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने का। 70 रुपए की दिहाड़ी वाले ये चाय श्रमिक बड़ी मुश्किल अपनी नौकरी दाव पर लगाकर दो-चार दिनों तक अनुसूचित जनजाति के दर्जा पाने के लिए आंदोलन एवं धरना प्रदर्शन किया। केंद्र सरकार के कानों तक इस खबर की जूं जब रेंगी तो राज्य सरकार इसे दबाने में कोई कोर-कशर भी छोड़ने के तैयार नहीं थी, लेकिन बाढ़, नाबालिग से छेड़छाड़ और दंगा-फसाद की खबरें जब सुर्खियों में आई तो अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने के मामले को राज्य सरकार को दबाने का मौका मिल गया। चाय श्रमिकों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का मामला अब पता नहीं कब उठेगा, शायद पांच दस साल तो लग ही सकते हैं। सरकार तक इस खबर को संज्ञान में लाने में कई दशक लग गए तो स्वाभाविक अब फिर आधा-एक दशक लग ही सकता है।
चाय श्रमिकों को यहीं बात हमेशा सालता है कि उनका शोषण आखिर क्यों किसी को नहीं दिखता! राज्य और केंद्र के अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले हम (चाय श्रमिक) हमेशा समाज, सरकार और मीडिया द्वारा तिरस्कृत क्यों होते हैं? वैसे तो चाय बागानों में अक्सर एक-दो लोग भूख और गरीबी से रोज मरते हैं, इनकी तो कोई गिनती ही नहीं करता। इनकी प्रतिदिन इस भयंकर शोषण और संघर्ष की कहानी असम के एक स्थानीय हिंदी अखबार में छपी देखी थी, वो भी अंदर के पेज पर, जहां पर शायद ही किसी की नजर ठीक से पहुंचती हो। खबर थी ‘‘14 मज़दूरों की मौत भूख, कुपोषण और ज़रूरी दवा-इलाज के अभाव में।’’ यह खबर उस अखबार में इस लिए छप गया क्यों कि वह वहां का स्थानीय अखबार था और रोज के अपेक्षा कहीं अधिक मजदूर मरे थे, वो भी एक ही चाय बागान में। असम के कछार जिÞले में स्थित यह चाय बागान भुवन वैली चाय बागान के नाम से जाना जाता है। इस चाय बागान में बीते अप्रैल महीने में लगभग 14 से अधिक चाय मजदूर भूख और कुपोषण से मर गए और हजारों की संख्या में चाय श्रमिक बीमार थे। रिपोर्ट में कहा गया था कि बागान प्रबन्धन ने 8 अक्टूबर 2011 को अचानक बागान बन्द कर दिया और मज़दूरों की सवा दो महीने की मज़दूरी भी ज़ब्त कर ली। आजीविका का कोई दूसरा इन्तज़ाम किये बिना मज़दूरों को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया गया। इस चाय बागान पर कोलकाता के एक नीजि कंपनी का मालिकाना है।
यहीं खबर अगर किसी अन्य जगह की होती तो निश्चित ही राष्ट्रीय खबर बनती और मानवाधिकार से लेकर स्वयंसेवी संस्थाओं का यहां जमावाड़ा लग जाता। खबर कई दिनों तक सुर्खियों में रहती है, लेकिन इतने ज्यादा चाय श्रमिकों का एक साथ नियमित अंतराल पर मरना किसी के लिए कोई खास मायने नहीं रखता तो रोज एक दो चाय श्रमिकों का मरना क्या किसी के लिए मायने रखेगा। बिते महीने गुवाहाटी में नाबालिग लड़की से छेड़छाड़ का मामला कई दिनों तक सुर्खियों में रहा, पूरा देश आक्रोशित था, मै भी इस खबर को सुनकर आक्रोशित था, लेकिन तीन साल पहले इसी तरह की गुवाहाटी में एक आदिवासी युवती के साथ घटी थी जब गुंडो, दबंगों की एक बड़ी फौज एक आदिवासी युवती की इज्जत तार-तार करने के लिए उसको नंगा कर दिया। सड़क पर नंगी भागती उस आदिवासी युवती को पूरा भारत देखा था, लेकिन कोई भी आदमी या पुलिस वाला उसकी सहायता करना मुनासिब नहीं समझा, क्योंकि वह आदिवासी युवती थी। नेता और सामाजिक कार्यकर्ता भी उस दिन अपनी नजरें चुरा रहे थे।
10 करोड़ आबादी वाले आदिवासी समुदाय द्वारा 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस देश के विभिन्न हिस्सों में मनाया गया। लेकिन यह खबर राष्ट्रीय खबर नहीं बन सकी, ही किसी स्थानीय अखबार की मुख्य खबर बन सकी। जबकि अन्य पर्व-त्यौहार हमेशा राष्ट्रीय खबर बनते हैं और प्रत्येक अखबार और चैनल की मुख्य खबर बनते हैं। 
समाज, सरकार और मीडिया द्वारा इनके प्रति इस तरह की बेरुखी आखिर क्यों? क्या ये इस देश के नागरिक नहीं है?   सबसे अमीर धरती के इन गरीब लोगों से कम से कम मीडिया को ऐसी तिरस्कार भावना नहीं अपनाना चाहिए।
Rajan kumar